लाश ! यह
शब्द कितना घिनौना है ! आदमी अपनी मौत से, अपने
घर में, अपने बाल बच्चों के सामने मरता है तब भी बिना आत्मा
के उस बदन को लाश ही कहते हैं और आदमी सड़क पर किसी बलवाई के हाथों मारा जाता है,
तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं | भाषा कितनी करीब होती है | शब्दों का कैसा
जबरदस्त काल है ! कितनी शर्म की बात है कि हम घर पर
मरने वाले और बलवे में मारे जाने वाले में फर्क नहीं कर सकते, जबकि घर पर केवल एक व्यक्ति मरता है और बलवाइयों के हाथों परंपरा मरती है,
सभ्यता मरती है, इतिहास मरता है | कबीर की राम की बहुरिया मरती है | जायसी की पद्मावती
मरती है | कुतुबन की मृगावती मरती है, सूर
की राधा मरती है | वारिस की हीर मरती है | तुलसी के राम मरते हैं | अनीश के हुसैन मरते हैं |
कोई लाशों का अंबार को नहीं देखता | हम
लाशें गिनते हैं | 7 आदमी मरे | 14 दुकानें लूटी | 10 घरों में आग लगा दी गई | जैसे कि घर, दुकान और आदमी केवल शब्द हैं जिन्हें शब्दकोशों से निकालकर वातावरण में
मडराने के लिए छोड़ दिया गया हो !
-राही मासूम रजा (स्रोत- वागर्थ, अंक-229, अगस्त 2014)
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