Wednesday, December 27, 2017

प्रिय कविता-2 कविता की जरूरत / कुंवरनारायण

बहुत कुछ दे सकती है कविता
क्योंकि बहुत कुछ हो सकती है कविता
जिंदगी में
अगर हम जगह दें उसे
जैसे फूलों को जगह देते हैं पेड़
जैसे तारों को जगह देती है रात
वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
एक नितांत कवितारहित जिंदगी
कर सकता है
कवितारहित प्रेम ! 

Tuesday, November 14, 2017

यहाँ-वहाँ की कहा-सुनी 2

लाश ! यह शब्द कितना घिनौना है !  आदमी अपनी मौत से, अपने घर में, अपने बाल बच्चों के सामने मरता है तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं और आदमी सड़क पर किसी बलवाई के हाथों मारा जाता है, तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं |  भाषा कितनी करीब होती है |  शब्दों का कैसा जबरदस्त काल है !  कितनी शर्म की बात है कि हम घर पर मरने वाले और बलवे में मारे जाने वाले में फर्क नहीं कर सकते, जबकि घर पर केवल एक व्यक्ति मरता है और बलवाइयों के हाथों परंपरा मरती है, सभ्यता मरती है, इतिहास मरता है | कबीर की राम की बहुरिया मरती है | जायसी की पद्मावती मरती है | कुतुबन की मृगावती मरती है, सूर की राधा मरती है | वारिस की हीर मरती है | तुलसी के राम मरते हैं | अनीश के हुसैन मरते हैं | कोई लाशों का अंबार को नहीं देखता |  हम लाशें गिनते हैं |  7 आदमी मरे |  14 दुकानें  लूटी |  10 घरों में आग लगा दी गई | जैसे कि घर,  दुकान और आदमी केवल शब्द हैं जिन्हें शब्दकोशों से निकालकर वातावरण में मडराने के लिए छोड़ दिया गया हो !
-राही मासूम रजा (स्रोत- वागर्थ, अंक-229, अगस्त 2014)


यहाँ-वहाँ की कहा-सुनी-1

कभी-कभी  सोचता हूं, शिक्षित होकर मैं एक तरह से घाटे में रहा | दरअसल मैंने अपनी जगह से बाहर निर्जन स्थलों या पर्वतों में शिक्षा नहीं पाई |  यह कुछ ऐसी बात है जिस पर पश्चाताप का एक भी शब्द मैं ना कहता |  मेरे पिछले अध्यापकों ने यह सब नहीं समझा, पर मैं चाहता हूं कि यह पढ़ाई कहीं कंदराओं, गुफाओं और निर्जन खंडहरों में हुई होती,  जहां मेरे दोनों तरफ पत्थर होते | भले ही इस तरह की पढ़ाई मैं मेरे गुण उभर कर ना आते लेकिन प्रकृति की शक्ति से ये गुण बढ़कर  लंबे हो जाते |
यह सब सोचकर ही मैं कहता हूं कि शिक्षित हो कर मैं कई दृष्टियों से घाटे में रहा |  शिक्षित होकर पछताने की बात बहुत लोगों के साथ होगी |  मां बाप, कितने ही सगे संबंधी, घर आने जाने वाले लोग, अनेक लेखक और खासकर घर का वह खानसामा, जो मुझे 1 वर्ष तक स्कूल लाता, और ले जाता रहा और फिर अध्यापकों की पूरी कतार- जो धीरे-धीरे टहलती हुई हमारी क्लास में चली आती थी - सब मुझे याद हैं|  यह सारी शिक्षा समाज पर एक छुरे जैसी लगती है | कभी यह छुरा आगे तो कभी पीछे नजर आने लगता है |
(फ्रैंज काफ्का)

Friday, November 10, 2017

धूमिल : एक धुमकेतू (जन्मदिन विशेष)

 धूमिल ने मुनासिब कार्यवाही में कहा था-कविता पर बहस शुरू करो और शहर को अपनी ओर झुका लो । हिंदी के जाने-माने एंग्री यंग मैन का आज जन्मदिन है जिसे साहित्य में धूमिल के नाम से पहचाना गया और जिसने अपना औपचारिक परिचय बनारस में खेवली गांव का निवासी सुदामा पांडे के रूप में दिया । सुदामा पांडेय धूमिल का जन्म 9 नवंबर 1936 को ग्राम खेवली जिला वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित शिव नायक और माता का नाम रसवंती देवी था।  मध्यम वर्गीय परिवार और ग्राम की प्राथमिक पाठशाला से अध्ययन का  श्री गणेश हुआ।  धूमिल अपने गांव से हाई स्कूल पास करने वाले प्रथम व्यक्ति थे, बाद की इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए बनारस आए विज्ञान विषय लिया और पढ़ाई शुरू की, परिवार की माली आर्थिक स्थिति ठीक ना होने के कारण पढ़ाई का क्रम टूट गया इसका सबसे व्यक्तिगत कारण आर्थिक खर्चों की पूर्ति का ना हो पाना था । जब मन कल्पना की कुलाचें भरने को हो और किशोरावस्था की वेग जोर मार हो ऐसी उम्र में, जिन्दी की गाडी को पटरी पर लाने के लिए,   रोजगार की तलाश में कोलकाता चले गए, वहां लोहा और लकड़ी ढोने का काम करते रहे, मालिक से अनबन होने पर वह वापस गावं चले आए।  कोलकाता में कमाए हुए पैसों से धूमिल ने आईटीआई का डिप्लोमा प्राप्त किया और विद्युत अनुदेशक के रूप में कार्य करने लगे । कार्य शैली में  ईमानदार, मेहनती और व्यवस्थित धूमिल स्वाभाव से अक्खड़  और मुहजोर थे, जिसकी वजह से इनकी अधिकारियों से सदैव अनबन  रहती थी ।  फलस्वरुप इनका ट्रांसफर होता रहता था- कभी सीतापुर, कभी सहारनपुर और कभी बलिया मे वे  अपनी सेवाएं देते रहे । सामाजिक रूप से उच्च कुल गोत्र में जन्म और आर्थिक रुप से उतनी ही दरिद्रता और साथ ही प्रतिभा की प्रखरता जो कि किसी दया की मोहताज न थी, के विषम और दुर्धर्ष योग ने धूमिल बनाया बिगाड़ा । धूमिल ने मात्र अत्यल्प समय का जीवन पाया।  बमुश्किल धूमिल 39 साल तक जीवित रहे और जीवन और समाज  के संघात से सामंजस्य न बिठा पाने की वजह से 10 फरवरी 1975 को लखनऊ में ब्रेन ट्यूमर जैसी घातक बीमारी होने की वजह से उनकी मृत्यु हो गई। धूमिल के सामाजिक पारिवारिक और आर्थिक संपन्नता और विपन्नता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि  धूमिल के  कवि  होने का पता उनके परिवार को उनके निधन पर आकाशवाणी से जारी समाचार के माध्यम से मिला। आज सुदामा पांडे धूमिल को हिंदी की समकालीन कविता में मील का पत्थर माना जाता है ।  70 के दशक में लिखी जाने वाली मोह भंग की कविताओं और आक्रोश व्यवस्था को बदलने की पीड़ा साथ ही जनता को आईना दिखाने वाली कविताओं के रूप में हम धूमिल को लक्षित कर पाते हैं। धूमिल के  मात्र तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हैं जिनमें संसद से सड़क तक का प्रकाशन उनके जीवित रहते, जबकि ‘कल सुनना मुझे’और ‘सुदामा पांडे का प्रजातंत्र’ नामक काव्य संग्रह उनके मृत्यु उपरांत प्रकाशित हुए ।  साहित्य के इस अक्षुण्य और देदीप्यमान नक्षत्र को साहित्य अकादमी दिल्ली ने 1979 में मृत्युपरांत पुरस्कृत किया । किसी कवि को हम उसके व्यक्तित्व से जान पाए यह कार्य दुष्कर है जबकि यदि हम उस कवि की कविताई के चौतरे पर पालथी मार लें तो कवि स्वयं ही बोल उठता है।  धूमिल संयत हो बोलते नहीं बल्कि उद्घोष करते हैं, जनमानस को जगाते हैं, अपनी कविता के माध्यम से उनसे सम्वाद करते हैं । धूमिल कविताओं में जितने ही सहज-सरल और अभिधेय हैं,  उनका जीवन उतना ही दुष्कर।  धूमिल की अंतिम कविता को उनकी प्रथम  कविता के रूप में याद करने का बरबस मन हो रहा और अंतिम पंक्ति जीवन साक्ष्य जैसा प्रतीत होती है-

शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग।
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।
 धूमिल किसी के भी प्रिय हो सकते हैं, जो संघर्ष, सच्चाई, समानता, सामाजिक पक्षधरता के साथ देसज, ग्रामीण, भदेस और लोक  के लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखता है । धूमिल हैं तो जन की आवाज है, धूमिल में हम न केवल एक एंग्री यंग मैन देखें बल्कि उस धूमिल को देखें जिसने अपने युग की बेचैनी तड़प और चाहत को बहुत कम शब्दों में समय की शिला पर सृजनात्मक प्रतिभा के साथ जड़ दिया है । अपनी साहित्य की परंपरा से धूमिल ने जो संस्कार अर्जित किए उनका प्रयोग उन्होंने रूढ़ियों की अंधपूजा के विरुद्ध सृजनात्मकता और विवेकपूर्ण संघर्ष से उत्पन्न मानवता के विकास के लिए किया वह मात्र क्रान्ति-भावना के भाव और असावधान आख्यान व्यक्त करने वाले कभी नहीं रहे हैं । बल्कि वह तेजस्वी हस्तक्षेप जनवादी स्वर और वास्तविक संसद को देख पाने वाले दूरदृष्टा हैं ।  डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी ने बहुत सही लिखा है, “ धूमिल की कविताओं का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह छलनी की तरह वस्तुस्थिति को छानती है, सूप की तरह वस्तुस्थिति को फटकती है, भूसे और दाने को अलग अलग करती है, मूल्यांकन के माहौल में कुछ मूल्यों का निर्माण करने की कोशिश करती हैं।  इसी अर्थ में वह अकविता को कविता की ओर उन्मुख करती हैं।  इसी दृष्टि से उनका वास्तविक महत्व है।”( आलोचना, धूमिल अंक), आज की कविता के लिए राजनीतिक विचारधारा की जरूरत समझाते हुए कवि धूमिल ने लिखा था-युवा लेखन के लिए राजनीतिक समझदारी जरूरी है । बिना इस राजनीतिक समझदारी के आज का लेखन संभव नहीं”( कल सुनना मुझे: युगबोध प्रकाशन,  वाराणसी, 1977) । जाहिरा तौर पर धूमिल ने साफ किया है की  कविता न केवल लिखते समय बल्कि उसे पढ़ते समय भी राजनीतिक समझ की जांच पड़ताल करने वाला नीर क्षीर विवेक आवश्यक है।

                                                      (फ़ोटो साभार: TheLallantop.com)
 खाये-पिये और अघाये लोगों की क्रांतिकारीबौद्धिक जुगालियों में गहरा अविश्वास व्यक्त करने में उन्होंने सामान्यीकरणऔर दिशाहीन अंधे गुस्से की पैरोकारीजैसे गंभीर आरोप भी झेले लेकिन पूछते रहे कि मुश्किलों व संघर्षों से असंगलोग क्रांतिकारी कैसे हो सकते हैं? उनका विश्वास था कि चंद टुच्ची सुविधाओं के लालची/अपराधियों के संयुक्त परिवारके लोग एक दिन खत्म हो जायेंगे और इसी विश्वास के बल से उन्होंने अराजकहोना कुबूल करके भी निष्ठा का तुक विष्ठा से नहीं भिड़ाया । धूमिल की 3 लंबी कविताओं की चर्चा हमेशा से होती रही है-  ‘पटकथा’,  ‘भाषा की एक रात’ और ‘मोचीराम’ । 1964 में धूमिल ने पहली बार मोचीराम की शुरुआत की और इस पर बराबर काम करते हुए इसे 1968 में  परिणीति प्रदान यहभाषा की रात’  और  ‘पटकथा’  से पहले की कविता है,  लेकिन कथ्य और शिल्प का निखार इसमें दोनों से अधिक है। यह मेरी प्रिय कविताओं में है ।  वाचक मोचीराम अपने आसपास की जिंदगी को समेटने के बावजूद, कविता को बिखरने की इजाजत नहीं देता है । कविता बगैर किसी भूमिका के नाटकीय ढंग से शुरू होती है-

रांपी से उठी हुई  आंखों ने मुझे
क्षण भर टटोला
और फिर
जैसे पतिआए हुए स्वर में
वह हंसते हुए बोला । (मोचीराम)

 इसके बाद पूरी कविता में मोचीराम बोलता रहता है कभी अपने बारे में, कभी जिंदगी के बारे में कभी जिंदगी से उपजे अनुभव से उत्पन्न विश्वदृष्टि भी प्रकट होती है । आदमी को वह रूप रंग, जाति,  संपत्ति की कसौटी के परे जूते की नाप’  के भीतर रखकर नापता है और हर आदमी को एक जोड़ी जूते के रूप में देखता है-

बाबूजी!  सच कहूं- मेरी निगाह में
ना कोई छोटा है
ना कोई बड़ा है
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिए खड़ा है। (मोचीराम)
 बच्चन सिंह लिखते हैं धूमिल का उदय धूमकेतु की तरह होता है जिसमें अग्नि भी है, धुंआ भी है । धुंआ  आधुनिकता है और अग्नि प्रगतिशील चेतना । धूमिल की ऊर्जा, विक्षोभ, आक्रामकता, भाषिक  नवोन्मेष देखकर थोड़ी देर के लिए निराला की याद आती है । पर धूमिल का एक छोर आधुनिकता से बना था तो दूसरा छोर अराजकता से । यह दोनों प्रवृत्तियां शुरू से ही दिखाई पड़ती हैं और अंत तक इन दोनों ने संग-संग साथ निभाया । सन 1967 में  वह एक और आधुनिकतावादीकविता’  लिख रहे थे तो दूसरी ओरमोचीराम  अपनी बात कहूँ तो यहां यह गौरतलब है कि आधुनिकता का प्रभाव समय का प्रभाव था जबकि अराजकता का प्रभाव निज जीवन  का।  
कल जन्मदिन था प्रिय कवि का जिसने साहित्य जगत और ख़ासक्र कविता लेखन में जो क्रांतिकारी परिवर्तन किये, ऐसे में वह बरबस याद आता रहेगा। अभाव-प्रभाव, निज-पर, गुट-गिरोह, विचारधारा-व्यापारधारा, कृतज्ञता-कैरियर, और अन्यान्य आग्रह-दुराग्रह रखने वाले लेखक, कवि आलोचक और साहित्य विचारक को ऐसे उत्कट जिजीजिषा के धनी साहित्यिक भले न याद आयें । पर हम जैसा मूढ़ जब जब इनको करीब पाता है बलि-बलि जाता है । तुमने हमें जीने का सलीका दिया है तुमे हमेशा याद आओगे।  
आशीष कुमार मिश्र 

 शोध-छात्र(हिंदी विभाग)
राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय 
मो.न.-07742718139, 09462280091
Email Id-phdashish1991@gmail.com 

Thursday, November 9, 2017

प्रिय कविता-1

भगत सिंह ने पहली बार पंजाब
जंगलीपन,  पहलवानी व जहालत से
बुद्धिवाद की ओर मोड़ा था
जिस दिन फांसी दी गई
उस की कोठरी में लेनिन की किताब मिली
जिस का एक पन्ना मोड़ा गया था
पंजाब की जवानी को
उसके आखरी दिन से
इस मुड़े पन्ने से बढ़ना है आगे, चलना है आगे


(अवतार सिंह संधूपाश’ )

प्रिय कविता-2 कविता की जरूरत / कुंवरनारायण

बहुत कुछ दे सकती है कविता क्योंकि बहुत कुछ हो सकती है कविता जिंदगी में अगर हम जगह दें उसे जैसे फूलों को जगह देते हैं पेड़ जैसे तारों को...