Tuesday, November 14, 2017

यहाँ-वहाँ की कहा-सुनी-1

कभी-कभी  सोचता हूं, शिक्षित होकर मैं एक तरह से घाटे में रहा | दरअसल मैंने अपनी जगह से बाहर निर्जन स्थलों या पर्वतों में शिक्षा नहीं पाई |  यह कुछ ऐसी बात है जिस पर पश्चाताप का एक भी शब्द मैं ना कहता |  मेरे पिछले अध्यापकों ने यह सब नहीं समझा, पर मैं चाहता हूं कि यह पढ़ाई कहीं कंदराओं, गुफाओं और निर्जन खंडहरों में हुई होती,  जहां मेरे दोनों तरफ पत्थर होते | भले ही इस तरह की पढ़ाई मैं मेरे गुण उभर कर ना आते लेकिन प्रकृति की शक्ति से ये गुण बढ़कर  लंबे हो जाते |
यह सब सोचकर ही मैं कहता हूं कि शिक्षित हो कर मैं कई दृष्टियों से घाटे में रहा |  शिक्षित होकर पछताने की बात बहुत लोगों के साथ होगी |  मां बाप, कितने ही सगे संबंधी, घर आने जाने वाले लोग, अनेक लेखक और खासकर घर का वह खानसामा, जो मुझे 1 वर्ष तक स्कूल लाता, और ले जाता रहा और फिर अध्यापकों की पूरी कतार- जो धीरे-धीरे टहलती हुई हमारी क्लास में चली आती थी - सब मुझे याद हैं|  यह सारी शिक्षा समाज पर एक छुरे जैसी लगती है | कभी यह छुरा आगे तो कभी पीछे नजर आने लगता है |
(फ्रैंज काफ्का)

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